शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

घर की यात्रा पार्ट -2

दो दिन मुजफ्फरपुर शहर में रहने के बाद दादा जी के बुलावे पर अपने पैतृक गांव जाना हुआ। मुजफ्फरपुर शहर से करीब 65 किलोमीटर की दुरी पर। दिल्ली जैसे शहरो में 65 किलोमीटर की दुरी कुछ ही पलों में तय हो जाती है। पर वहां पर गांव जाने का नाम सुनकर ही शरीर में दर्द जग उठता है। पुरानी यादें साथ थी। उपर से बारिश का महीना । जो लोग बिहार के रहने वाले होंगे वो जानते होंगे की बारिश के महीने में मुजफ्फरपुर सीतामढ़ी नेशनल हाइवे किसी नदी से कम नहीं होता है। शेष दिनों में गाड़ियां गड्ढो में सड़के ढूंढती हैं । खैर, घर से गांव जाने के लिए निकला। बस स्टैंड पहुंच कर बस में बैठा। बदलाव यहां भी दिखा। बड़ी बसों की जगह टाटा की नई छोटी बसों की भरमार थी । यह स्थिति पूरे बस स्टैंड में थी । कारण जानने पर पता चला पैसेंजर कम होते है तो बड़ी बसें चलानें में मुनाफा नहीं होता वैसे ही तेल की कीमतों में आग लगी है। खैर बस चल पड़ी । गंडक की तलहटी में जहां पहले पानी हुआ करता था दिल्ली की तरह लोगों ने अनाधिकृत कालोनियों के निर्माण का काम शुरु कर दिया था। इस उम्मीद से कि किसी चुनाव में उनकी भी लॉटरी निकल आएगी। कानून को ठेंगा दिखाकर अवैध को वैध बना दिया जाएगा । सड़कों के दोनो किनारे बस्ती आबाद हो चुकी थी । दो साल पहले इसकी शुरुआत तो हुई थी पर अंजाम तक अब पहुंचा था । बस तेजी से शहर को पीछे छोड़ रही थी। । बस सड़क पर सरपट भागी जा रही थी। मै इंडिया टुडे के पन्नों से नूरा कुश्ती कर रहा था । उम्मीद यह थी की ऊबड़- खाबड़ सड़को पर जब बस पहुंचेगी तो खुद ही मालूम हो जाएगा। उसके बाद का समय तो किताब पढ़ने का नहीं सीट पर लेटने का होगा । आखिर गांव की 65 किलोमीटर की दूरी तय करने में करीब - करीब चार घंटे तो लग ही जाते थे। इस बात से बेफिक्र मै इंडिया टुडे में देश की बड़ी संस्थानों के बारे में पढ़ रहा था। तभी कंडक्टर पास आया और किराये की मांग की ।यह मेरे लिए नया तजुर्बा था। गांव जाने वाली बस में मुझसे या मेरे परिवार से पैसे आज तक किसी ने नहीं मांगा था। गांव आते ही हम लोग कंडक्टर के हाथों में जो कुछ रख देते इससे संतुष्ट होना उसकी मजबूरी होती। ये सब प्रताप मेरे दादा जी का था जिनके नाम ही काफी थे। वैसे बताते चले वो चंबल के डाकू नहीं है। मै किराया देने के बाद खिड़की से बाहर देखा तो मालूम चला की उस वक्त तक मै शहर से करीब 25 किलोमीटर की दूरी तय कर चुका था। मैने बस से ही नीचे सड़क को देखा। सड़के बन चुकी थी मै यह देख कर दंग था। मेरी उम्र इस समय करीब 26 साल है इतनी उम्र में मुझे कई बार गांव जाने का मौका मिला पर सड़कों को हमेशा आंसू बहाते और बड़ी बड़ी गाड़ियों को इसका चीर हरण करते देखा था । नई स्थिति मेंरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं थी। बस तेजी से उंचाई की ओर जा रही थी। एन एच 24 पर उंचाई अपने आप में आश्चर्य की बात थी। गहराई तो उस सड़क से सफर करने वालों की नियति बन चुका थी । बहरहाल अब हम समतल ज़मीन से करीब 50 फीट की ऊँचाई पर एक बड़े पुल पर थे। इस पुल का निर्माण किया था बिहार राज्य पुल निर्माण निगम ने जो कुछ साल पहले दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुकी थी । जहां तक मुझे जानकारी है और लोगों से सुना था कि इस पुल की नींव पूर्व मुख्यमंत्री श्री जगन्नाथ मिश्रा ने डाली थी। पूरा अब हुआ था। अब जहां पुल है वहां दो साल पहले सड़क हुआ करती थी, एक पुलिस चौकी भी,यह पुलिस चौकी ट्रक वालों के लिए आम दिनों में किसी मंदिर से कम न था। बिना मांगे यहां चढावा चढता,बाढ़ के दिनों में भी स्थिति यही था पर ट्रक की जगह नाव वाले ले लेते,सरकार की ओर से नाव के किराये तय थे पर तय होने से क्या होता है,नाव में बैठना है तो मांझी के कहे को मानना ही होगा। पर मांझी की कमाई पर उस चौकी की नज़र बनी रहती,सीधे शब्दों में कहें तो नाव वालों के लिए ये चौकी इंकम टैक्स ऑफिस से कम न था । आज पुल से नीचे देखा तो पुलिस चौकी की इमारत रेत में धंस चुकी थी। मन में सवाल ने एक बार फिर दस्तक दी क्या वाकई में बिहार की गर्त व्यवस्था इसी इमारत की तरह ज़मीदोज होगी। चौकी के आस- पास थानेदार साहेब को चाय,पानी और पान खिलाने वाले दुकान भी नही रहे । पुल के दोनों सिरे पर ऊंचे बांध बन चुके थे। इस उम्मीद से की उफनती बागमती नदी को इस परिक्षेत्र में क़ैद किया जा सके। आखिर बागमती नदी मिथिलांचल के लिए विकट रेखा रही है। इस दृश्य को देखकर एकबारगी लगा की मै रास्ता भटक चुका हुं ।गाड़ी सरपट भागी जा रही थी। छोटी छोटी पुल और पुलिया बड़ी हो गई थी । सड़क के दोनों किनारों पर नेपाल आयातित पानी आ धमका था। पर सड़को को पार करने की शक्ति वो अब भी नहीं जुटा पा रहीं थी ।लहरें सड़को से टकराती और ढेर हो जाती । सड़को की जीत यात्रियों को सुकून दे रही थी । कुछ देर एन एच छोड़ कर बस एक सब रोड की ओर मुड़.गई। ये सड़के भी बन चुकी थीं ये सब मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम न था ,तभी बूंदा- बांदी शुरु हो गई। बस में बैठे लोगों की ओर मेरी नज़र पड़ी। कुछ लोग बस में चुप चाप बैठे थे तो काफी लोग उंघते दिखे ।गांव जाने वाली बसों में अक्सर ये शांति नहीं दिखती। विधान सभा में भले ही किसी मुद्दे पर चर्चा न हो पर बिहार की ग्रामीण बसों में राजनीति की पूरी पटकथा पर चर्चा हो जाती है ।आखिर 5 घंटे का समय बस से उबड़ खाबड़ रास्ते से गुजारना किसी सज़ा से कम तो नहीं। इस बीच हम करीब चालीस किलोमीटर की दूरी तय कर चुके थे । आगे की यात्रा पुरानी यादें दिलाने के लिए काफी था। पर सुकून इस बात का था कि काम वहां भी तेजी से हो रहे थे। सड़को के किनारे गिट्टी गिरी हुई थी। सड़कों के किनारे हीं कुछ कुछ दूरी पर शिलापट्टी लगी थी। जिसे पढ़ने की मेरी कोशिश बस की रफ्तार में असफल हो रही थी। देखते देखते अब मै अपने गांव में था। करीब 65 किलोमीटर की दूरी पहली बार इस रास्ते दो घंटे में पूरी की हमने ।बस से उतरते ही मेरी नज़र उस शिलापट्ट पर पड़ी जिसे पढ़ने की मेरी कोशिशों को बस की रफ्तार पलीता लगा रही थी। शिलापट्ट पर लिखा था कान्ट्रैक्टर का नामविजय मंडल, कुल दुरी -5किलोमीटर,स्थान बनमंखी से चैता तक। कार्य पुरी करने कि तिथि -10 अक्टूबर 2008.कुल राशि-84,73,590,सड़क की चौड़ई-40 फीट।। कोई समस्या हो तो मुख्य अभियंता से इन नं पर संपर्क करें। दरसल यह दस्तावेज बता रहे थें की काम में पारदर्शिता के लिए सरकार क्या कुछ कर रही है। अगले दिन गांव में घूमने निकला सड़को के किनरे दुकानों की बाढ़ थी। एक खालिस गांव पूरी तरह से छोटे मोटे बाज़ार का रुप ले चुका था। जिज्ञासा वस एक दुकान पर बैठ गया। आखिर अब लोग सोच क्या रहे है। गांव की दुकानो की मेरी पहली यात्रा थी। दादाजी की हिटलरशाही परिवार के लोगो को दुकान पर जाने से रोकता रही । 26 बरस की उम्र मे पहली बार गांव की दुकान पर बैठा था। सामान तो आजतक नहीं खरीदा । इसका फायदा ये हुआ की दुकान पर बैठे लोग मुझे पहचान नहीं पाए और बात करने का पूरा पूरा मौका मिला । बातों बातो मे ही मालूम हुआ कि मुंबई में काम करने गए कुछ लोग गीदड़वंशी(माफ करना इन लोगों के लिए उपयुक्त शब्द है)राजठाकरे के आतंक से परेशान हो कर गाँव लौट आए और गांव में ही रोजगार करने लगें है। यहीं बाज़ार पर हीं सोलर वेपर भी लगा देखा तो लगा की दुकान वालों ने ही लगवाए होंगे, पर लोगों ने बताया की ब्लॉक से लगा है । महसूस किया अब चाय की दुकानों पर राजनीति की ही बात नहीं होती कामनीति की बात भी होती है गाँव ने बाज़ार से रिश्ता कायम कर लिया है खेतों की उपज धीरे धीरे ही सही शहरों की मंडी में आने लगी है। सुधा डेयरी की गाड़ी गांवो में दिखने लगी है । लोगों ने बदलाव को तहे दिल से स्वीकार तो किया है पर प्रयोग जारी है। स्कूलों में भी अब शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं पर ठीक ठाक है। पर कुछ गुरु जी अब भी तनख्वाह लेने ही आते है। मुखिया जी इसमें सहयोग देते है । पर एसे गुरुओं की संख्या कम है । अपने गांव को विकास के रास्ते चलते देखना बेहद सुकून भरा रहा। उम्मीद करते है कि ये कारवाँ आगे भी जारी रहेगा नीतीश जी बदलाव की बयार चलाने को शुक्रिया पर जरा तेजी से बहुत कुछ किया जाना बाकी है। गांवो को बिजली का अभी भी इंतज़ार है स्वास्थय सेवा में भी काफी कुछ करने की गुंजाइश है । समय भी प्रयाप्त है,पर चुनौती कम नहीं ।